“शाम की चाय अक्सर बता देती है कि आज दिन कैसा रहा।”
हाथों में जकड़ा वो भरा प्याला, ऊपर से थोड़ा सा खाली, अक्सर जवाब इसी के कहीं बीच में छुपा होता है। खैर, मेरी आज की चाय मीठी है।
सामने बैठा शख्स भी शायद यही आज़मा रहा है। मेरे बायीं ओर से एक हवा का झोंका कुछ बूंदों के साथ आगे निकल गया, दायीं ओर से उसके भी बालों से उसकी आंखें छुपाने में मदद करता रहा।
फिर भी दो बूंदें उसकी आंखों से सीधा प्याले में गिरके उस थोड़े से खाली प्याले को भर देती है, अब शायद वो चाय उतनी मीठी भी नहीं रही होगी जितनी पहले थी।
“ये दो बूंद अक्सर मिठास कम कर देती है।”
बिना कुछ कहे फिर भी हम रोज अपनी अपनी चाय पीते हैं। लेकिन आखिरी घूंट के साथ आंखें एक दूसरे से कह ही देती है —
“कल फ़िर चाय पर मिलते हैं!!”